थी वो एक दोपहर
दुनिया की शोर-शराबे से भरी,
जब आँख लगी...
दिखा दूर एक किनारा,
सपनों की गहराईयों में ढूँढ़ता रहा उस किनारे की रस्ता।
चलता रहा मैं आहिस्ता,
ढूँढ़ता रहा मैं आहिस्ता।
कहाँ जाऊँ मैं?
किधर जाऊँ मैं?
कहीं खो ना जाऊँ मैं!
सपने की उस मोड़ पे ठहरा,
वह जो थी खाई जितना गहरा,
मेरी चीखें भी गूँजती रही उस खाई की सन्नाटे में।
पैर जब फिसला, उड़ गया उस सन्नाटे से,
वही शोर-शराबे की दुनिया में!
मिली नहीं मुझे वह रस्ता ,
फिर भी, ढूँढ़ता रहा मैं उस किनारे की रस्ता।
चलता रहा मैं आहिस्ता...
ढूँढ़ता रहा मैं आहिस्ता...