मैं क्यों इतनी थकी हूँ

मैं क्यों हूँ इस भरी ज़िन्दगी में इतनी अकेली,

मैं क्यों फिर से शुरुआत करने से इतनी डर रही हूँ

मैं क्यों महसूस कर रही हूँ प्रेम के बीच एक शून्यता?

मैं अपने आप में कही खो सी गयी हूँ 

मैं एक बदलाव लाने के लिए भी थक सी गयी हूँ 

मैं अंदर ही अंदर मर रही हु, मुस्कुराने के लिए भी थक सी गयी हूँ

मैं करवटें बदलते हुवे इस सोच मे खोयी  हूँ की मैं अब ऐसी क्यों हूँ ?

मैं रहती थी, बीते सालों की शांति में,

जब सपने थे रंगत से भरे, कहानियाँ जो मैं कहती थीं

लेकिन अब, इस सुविधा के बीच,  मैं सोचती हूँ 

मेरे जीवन में ऐसा क्या हुआ कि यह एक ऐसा झमेला बन गया?

संदेह की गहराइयों में, भावनाओं से दूर ,

“मैं क्या करूं,” मैं खुद से कहती सुनाती हूँ।

संघर्ष में लिपटी, एक राह ढूँढ़ती,

“आज मैं खुद को क्यों मदद नहीं कर सकती  हूँ?”